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________________ वाराणसी तीर्थ की आरती चलो सभी मिल करें आरती, वाराणसि शुभ धाम की। श्री सुपार्श्व अरु पार्श्वनाथ के, जन्मकल्याण स्थान की।। जय जय पार्श्व जिनं, प्रभो सुपार्श्व जिन।।टेक.॥ काशी नाम से जानी जाती, वाराणसि यह प्यारी है। इन्द्र ने जिसे सजाया कर दी, रत्नों की उजियारी है।। वर्णन जिसका अगम-अकथ है, महिमा जन्मस्थान की|श्री.॥जय.॥१॥ श्री सुपार्श्व तीर्थंकर प्रभु के, चार यहाँ कल्याण हुए। पृथ्वीषेणा के संग राजा, सुप्रतिष्ठ भी धन्य हुए।। श्री सम्मेदशिखर गिरि है उन, प्रभुवर का शिवधाम जी॥श्री.॥जय.॥२॥ पुन :इसी पावन भूमी पर, पारसप्रभु ने जन्म लिया। अश्वसेन के राजदुलारे, वामा माँ को धन्य किया। यहीं अश्ववन में दीक्षा ले, चले राह शिवधाम की|श्री.।।जय.॥३॥ अहिच्छत्र में ज्ञान मिला, सम्मेदशिखर निर्वाण हुआ। बाल ब्रह्मचारी पारस प्रभु, का हम सबने ध्यान किया।। सांवरिया मनहारी प्रभु की, महिमा अपरम्पार जी||श्री.॥जय.॥४।। प्रभु तुम सम पद पाने हेतू, इस तीरथ को सदा नमूं। वाराणसि नगरी की माटी, शीश चढ़ा प्रभु पद प्रण।। भाव यही 'चंदनामती', हर आत्मा बने महान भी।।श्री.॥जय.॥५॥ हुई स्वयंवर प्रथा यहाँ से, ही प्रारंभ कहा जाता। पद्म नाम के चक्रवर्ति का, जन्म यहीं माना जाता।। भरे कई इतिहास हृदय में, अतिशययुक्त महान भी।श्री.॥जय.॥६॥ समन्तभद्राचार्य गुरू की, भस्मक व्याधी शांत हुई। चन्द्रप्रभू की प्रतिमा प्रगटी, जैनधर्म की क्रान्ति हुई।। विद्या का यह केन्द्र बनारस, जग में ख्यातीमान भी।।श्री.॥जय.।।७।। 92
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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