SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मंगल आरती घृत दीपक का थाल ले, उतारूँ आरतिया, मैं तो पाँचों परमेष्ठी की। पाँचों परमेष्ठी की एवं चौबीसों जिनवर की।घृत दीपक.।टेक.।। समवसरणयुत अरिहंतों की, सिद्धशिला के सिद्धों की-२ भवदुख नाशन हेतु ही, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की॥१॥ ___ परमेष्ठी आचार्य उपाध्याय साधु मोक्षपथगामी है-२ रत्नत्रय की प्राप्ति हित, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की।॥२॥ ___ मुनिवर ही तो कर्म नाश, अरिहंत-सिद्ध पद पाते हैं-२ कर्म विनाशन हेतु ही, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की।।३।। चौबीस जिन जहाँ जन्मे एवं जहाँ से मोक्ष पधारे हैं-२ उन सब पावन तीर्थ की, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की।॥४॥ देव-शास्त्र-गुरू तीनों जग में, तीन रतन माने हैं-२ आतम निधि के हेतु ही, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की।।५।। तीन लोक के जिनमन्दिर, कृत्रिम-अकृत्रिम जितने हैं-२ उन सबकी “चंदनामती”, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की॥६॥ पाँचों परमेष्ठी की एवं चौबीसों जिनवर की-२ घृत दीपक का थाल ले, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की।।७।। 144
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy