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________________ पंचमेरू विधान की आरती ॐ जय श्री मेरुजिनं, स्वामी जय श्री मेरुजिन। ढाई द्वीपों में हैं-२, पंचमेरु अनुपम।।ॐ जय.।। मेरु सुदर्शन प्रथम द्वीप के, मध्य विराज रहा।स्वामी.। सोलह चैत्यालय से-२, स्वर्णिम राज रहा।।ॐ जय.॥१॥ पूर्वधातकी खण्ड द्वीप में, विजय मेरु शाश्वतास्वामी.। ऋषिगण वंदन करने जाते-२, पीते परमामृत।।ॐ जय.॥२॥ अपर धातकी अचलमेरु से, सुन्दर शोभ रहा।स्वामी.। तीर्थंकर जन्माभिषेक भी-२, करते इन्द्र जहाँ।।ॐ जय.॥३॥ पुष्करार्ध के पूर्व अपर में, मेरू द्वय माने।स्वामी.। मंदर विद्युन्माली-२, नामों से जाने।।ॐ जय.॥४॥ पंचमेरु के अस्सी, जिनमन्दिर शोभेस्वामी.। इक सौ अठ जिनप्रतिमा, सुर नर मन मोहें।।ॐ जय.॥५।। जो जन श्रद्धा रुचि से, प्रभु आरति करते।स्वामी.। वही "चंदनामति” क्रम क्रम से, भव आरत हरते।।ॐ जय.॥६।। 114
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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