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________________ गणधरवलय विधान की आरती आरती गणधर स्वामी की। ऋद्धि समन्वित, सबका करें हित, निज में सदा रत रहते।।टेक.।। मुनि व्रत धारण कर जो नर, उग्रोग्र तपस्या करते। तप के ही बल पर वे मुनि, नाना ऋद्धी को वरते।। आरती गणधर स्वामी की ॥१॥ श्री विष्णुकुमार मुनी को, हुई प्राप्त विक्रिया ऋद्धी। उपसर्ग दूर कर मुनि का, हो गई सफल उन ऋद्धी ।। आरती गणधर स्वामी की ॥२॥ अक्षीणमहानस ऋद्धी, युत मुनि आहार जहाँ हो। उनकी ऋद्धी से उस दिन, अक्षय भंडार वहाँ हो।। आरती गणधर स्वामी की ॥३॥ चारणऋद्धीयुत ऋषिगण, आकाशगमन करते हैं। ढाई द्वीपों के अंदर, विचरण करते रहते हैं।। आरती गणधर स्वामी की ॥४॥ कलिकाल में कोई मुनिवर, निह ऋद्धि प्राप्त करते हैं। "चंदनामती'' फिर भी वे, शक्तीयुत तप करते हैं।। आरती गणधर स्वामी की ॥५।। 102
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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