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________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला को नहीं पढ़ा था, ग्रन्थपरीक्षाके तृतीय भाग और 'विवाह-क्षेत्रप्रकाश' को पढ़कर अपने १६ नवम्बरके पत्र में लिखा था "आपकी इन पुस्तकोंको पढ़कर बड़ा ही आनन्द आता है। ये सब पुस्तके विद्यार्थी-जीवनमें ही पढ़ लेना चाहिये थीं, मगर दुःग्वका विपय है कि उन पांजगपोलों या कांजीहाउसों (कानीभीतों) में विद्यार्थियोंकों ऐसे साहित्यका भान भी नहीं कराया जाना है। मेरी प्रबल इच्छा है कि आपकी और प्रेमीजी की नमाम रचनायें पढ़ जाऊँ । क्या आप नाम लिखने की कृपा करेंगे ?...... खेद है कि मामाजिक संस्थाओंमें हम लोग इन झान व्यापक बनाने बाली पुस्तकांस बिल्कुल अपरिचित रक्वे जाते हैं । इसी लिये विद्यार्थी ढब्बू निकलते हैं।" ___ इन्हीं पं० परमेष्ठीदासजीने, दूसरी ग्रन्थपरीक्षाओंको भी पढकर, चर्चामागरकी समीक्षा लिखी है । यद्यपि आपने और दूसरे भी कुछ विद्वनोंने मुझे चर्चासगरकी भी साङ्गोपाङ्ग परीक्षा लिग्य देनेकी प्रेरणा की थी परन्तु मैं उस ममय चर्चासागरके बड़े भाई 'सूर्यप्रकाश' की परीक्षाके कामको हाथ में ले चुका था और पासमें अवकाश जरा भी नहीं था, इसलिये क्षमा याचना ही करनी पड़ी थी। इन पं० परमेष्ठीदासजीने ग्रन्थपरीक्षाके मागको अपनाया है, और भी दानविचार तथा सुधर्मश्रावकाचार जैसे ग्रन्थोंकी समीक्षाएँ इन्होंने बादको लिखी है, जो सब प्रकट होचुकी हैं। इस तरह ग्रन्थपरीक्षाका जो गजमार्ग खुला है उसपर कितनों ही को चलता तथा चलनेके लिये उद्यत देखकर मेरी प्रसन्नता का होना स्वाभाविक था, और जिसे मैंने उस समय व्यक्त भी किया था। यहाँ पर मैं यह भी बतला देना चाहता हूँ कि 'सूर्यप्रकाश' ग्रन्थकी गोमुखव्याघ्रता चर्चासागरसे भी बढ़ी चढ़ी है। यह भी जैनत्वस गिरा हुआ जैनप्रन्थोंका कलंक है, भ० महावीरके पवित्र
SR No.009242
Book TitleUmaswami Shravakachar Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1944
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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