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अनेकान्स-रस-लहरी
उत्तर इतना ही है कि-मोहन उम्र में, क़दमें, रूपमें, बलमें, विद्यामें, चतुराईमें और आचार-विचारमें बहुतोंसे छोटा है और बहुतोंसे बड़ा है। जिनदासजीको जिसके साथ जिस विषय अथवा जिन विषयोंमें उसकी तुलना करनी थी उस तुलनामें वह छोटा पाया गया, और इस लिये उन्हें उस समय उसको छोटा . कहना ही विवक्षित था, वही उन्होंने उसके विषयमें कहा । जो जिस समय विक्षित होता है वह 'मुख्य' कहलाता है और जो विवक्षित नहीं होता वह 'गौण' कहा जाता है। मुख्य-गौणकी इस व्यवस्थासे ही वचन व्यवहारकी ठीक ब्यवस्था बनती है। अत: जिनदासजीके उक्त वथनमें दोषापत्तिके लिये कोई स्थान नहीं है । अनेकान्तके प्रतिपादक स्याद्वादियोंका 'स्यात्' पदका श्राश्रय तो उनके कथनमें अतिप्रसंग-जैसा गड़बड़-घुटाला भी नहीं होने देता। बहुतसे छोटेषनों और बहुतसे बड़ेपनोंमें जो जिस समय कहने वालेको विक्षित होता है उसीका प्रहण किया जाता है-शेषका उक्त पदके आश्रयसे परिवर्जन (गौणीकरण) हो जाता है।" ___ अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या अभी चल ही रही थी कि इतनेमें घंटा बज गया और वे दूसरी कक्षामें जाने के लिये उठने लगे। यह देखकर कक्षाके सब विद्यार्थी एक दम खड़े हो गये और अध्यापकजीको अभिवादन करके कहने लगे-'आज तो आपने तत्त्वज्ञानकी बड़ी बड़ी गंभोर तथा सूक्ष्म बातोंको ऐसी · सरलता और सुगम-रोतिसे बातकी बातमें समझा दिया है कि हम उन्हें जीवनभर भी नहीं भूल सकते । इस उपकारके लिये हम आपके आजन्म ऋणी रहेंगे।'