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________________ धवला उद्धरण 82 रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्य तु नेते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति।।11।। राग से, द्वेष से अथवा मोह से अत्सत्य वचन बोला जाता है, परंतु जिसके ये रागादि दोष नहीं रहते हैं, उसके असत्य वचन बोलने का कोई कारण भी नहीं पाया जाता है।।11।। अवगयणिवारणठं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च। संसयविणासणठें तच्चत्थवधारणटुं च।।12।। अप्रकृत विषय के निवारण करने के लिये, प्रकृत विषय के प्ररूपण करने के लिये, संशय का विनाश करने के लिये और तत्त्वार्थ का निश्चय करने के लिए यहाँ पर सभी अनन्तों का कथन किया है।।12।। निक्षेप की उपयोगिता जत्थ बहू जाणेज्जो अपरिमिदं तत्थ णिक्खिवे सूरी। जत्थ बहअंण जाणड चउत्थवो तत्थ णिक्खेवो।।13।। जहाँ जीवादि पदार्थों के विषय में बहुत जानना चाहे, वहाँ पर आचार्य सभी का निक्षेपकरे तथा जहाँ पर बहुत न जाने, तो वहाँ पर चार निक्षेप अवश्य करना चाहिये।।13।। प्रमाण-नयनिक्षेप यो ऽथों नाभिसमीक्ष्यते। युक्तं चायुक्तवद् भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत्।।14।। प्रमाण, नय और निक्षेपों के द्वारा जिस पदार्थ की समीक्षा नहीं की जाती है, उसका अर्थयुक्त होते हुए भी अयुक्तसा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्तसा प्रतीत होता है।।14।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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