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धवला पुस्तक 1
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जिसका भूतकाल में चिन्तन किया है, अथवा जिसका भविष्यकाल में चिन्तन होगा, अथवा जो अर्धचिन्तित है इत्यादि अनेक भेदरूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जो जानता है, उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मनुष्यक्षेत्र में ही होता है।।185।।
केवलज्ञान संपुण्णं तु समग्गं केवलमसवत्त-सव्व-भाव-विदं। लोगालोग-वितिमिरं केवलणाणं मुणेयव्वा।।186।।
जो जीव द्रव्य के शक्तिगत सर्वज्ञान के अविभाग-प्रतिच्छेदों के व्यक्त हो जाने के कारण संपूर्ण है, ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा नाश हो जाने के कारण जो अप्रतिहत शक्ति है इसलिये समग्र है, जो इन्द्रिय और मन की सहायता से रहित होने के कारण केवल है, जो प्रतिपक्षी चार घातिया कर्मों के नाश हो जाने से अनुक्रम रहित संपूर्ण पदार्थों में प्रवृत्ति करता है इसलिये असपत्न है और जो लोक और अलोक में अज्ञानरूपी अन्धकार से रहित होकर प्रकाशमान हो रहा है, उसे केवलज्ञान जानना चाहिये।।186।।
सामायिक संयत संगहिय-सयल-संजममेय-जममणुत्तरं दुरवगम्म। जीवो समुव्वहंतो सामाइय-संजदो होई।।18711 जिसमें समस्त संयमों का संग्रह कर लिया गया है, ऐसे लोकोत्तर और दरधिगम्य अभेदरूप एक यम को धारण करने वाला जीव सामायिक संयत होता है।।187।।