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धवला पुस्तक 1
53 आहारक काययोग आहरदि अणेण मुणी सुहुमे अढे सयस्स संदेहे। गत्ता केवलि-पासं तम्हा आहारको जोगो।।164।।
छटवें गुणस्थानवर्ती मुनि अपने को संदेह होने पर जिस शरीर के द्वारा केवली के पास जाकर सूक्ष्म पदार्थों का आहरण करता है उसे आहारक शरीर कहते हैं। इसलिये उसके द्वारा होने वाले प्रयोग को आहारक काययोग कहते हैं।।164।।
आहारक मिश्र काययोग आहारयमुत्तत्थं वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णं ति। जो तेण संपजोगो आहारयमिस्सको जोगो।।165।।
आहारक का अर्थ कह आये हैं। वह आहारक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है तब तक उसको आहारक मिश्र कहते हैं और उसके द्वारा जो संप्रयोग होता है उसे आहारक मिश्र काययोग कहते हैं।।165।।
कार्मण काययोग कम्मेव च कम्म-भवं कम्मइयं तेण जो दु संजोगो। कम्मइयकायजोगो एग-विग-विगेसु समएसु।।166।।
ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मस्कन्ध को ही कार्मणशरीर कहते हैं। अथवा नामकर्म से जो उत्पन्न होता है उसे कार्मणशरीर कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग को कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग एक, दो अथवा तीन समय तक होता है।।।166।।
समुद्घातपूर्वक मुक्त होने वाले जीव छम्मासाउवसे से उप्पणणं जस्स केवलं गाणं। स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए।।167।।