________________
धवला पुस्तक 1
41
वाले सूक्ष्म लोभ में जो स्थित है, उसे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती जीव समझना चाहिये।।121।।
उपशान्तकषाय गुणस्थान
सकयगहलं जलं वा सरए सरवाणियं व मिणम्मलए सयलोवसंत मोहो उवसंत कसायओ होई ||122 | निर्मली फल से युक्त निर्मल जल की तरह, अथवा शरद् ऋतु में निर्मल होने वाले सरोवर के जल की तरह, संपूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों को उपशान्तकषाय गुणस्थान कहते हैं।।122 ।।
क्षीणकषाय गुणस्थान
णिस्से - खीण-मोहा फलिहामल - भायणुदय- समचित्तो । खीण-कसाओ-भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहि ।।123।।
जिसने संपूर्ण अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध रूप मोहनीय कर्म को नष्ट कर दिया है। अतएव जिसका चित्त (आत्मा) स्फटिक मणि के निर्मल भाजन में रखे हुए जल के समान निर्मल है, ऐसे निर्ग्रन्थ को वीतराग देव ने क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कहा है।।123॥
सयोग केवली गुणस्थान
केवलणाण-दिवायर - किरण - कलाव-प्पणासियण्णाणो । णव- केवल-लुगम्म-सुजणिय परमप्प - ववएसो ।।124।। असहाय-णाण-दंसण- सहिओ इदि केवली हु जोएन । जुत्तो त्ति संजोगो इहिद अणाई - णिहणारिसे उत्तो।।125।।
जिसका केवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान रूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है और जिसने नव केवल लब्धियों के प्रगट