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धवला उद्धरण
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जीव, जो पूर्व में कभी भी नहीं प्राप्त हुए थे ऐसे अपूर्व परिणामों को ही धारण करते हैं। इसलिये इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है ।।।117।।
तारिस - परिणाम-ट्ठिय-जीवा हु जिणेहि गलिय- तिमिरेहि । मोहस्स पुव्वकरणा खवणुवसमणुज्जा भणिया।।118।।
पूर्वोक्त अपूर्व परिणामों को धारण करने वाले जीव मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों के क्षपण अथवा उपशमन करने में उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञानरूपी अन्धकार से सर्वथा रहित जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।118।।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान
एक्कम्मि काल - समए संठाणादीहि जण णिवट्टति । ण णिवति तह च्चिय परिणामेहि मिहो जे हु ||119|| होंति अणियट्टिणो ते पडिसमयं जस्स एक्क परिणामा । विमलय-झाण- हुयवह- सिहाहि णिद्दड्ढ - कम्म - वणा ।।120।।
अन्तर्मुहूर्त मात्र अनिवृत्तिकरण के काल में से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार, वर्ण आदि रूप से परस्पर भेद को प्राप्त होते हैं, उस प्रकार जिन परिणामों के द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है, उनको अनिवृत्तिकरण परिणाम वाले कहते हैं और उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए एक से ही (समान विशुद्धि को मिलाये हुए) परिणाम पाये जाते हैं तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्नि की शिखाओं से कर्मवन को भस्म करने वाले होते हैं।।119-120।।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान
पुव्वापुव्व-पद्दय-अणुभागादो अनंत-गुण- हीणे । लोहाणुम्हि ट्ठियओ हंद सुहुम- संपराओ सो।।121।। पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक के अनुभाग से अनन्तगुणे हीन अनुभाग