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धवला उद्धरण
IV
उनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य ने उनकी अपूर्ण जयधवला टीका की रचना शक सं.759 (837 ई.) में फाल्गुन शुक्ला दशमी को पूर्ण की थी। अतः श्री वीरसेनाचार्य का समय इससे पूर्व का है। डॉ. हीरालाल जैन ने अनेक प्रमाणों के आधार पर धवला टीका की पूर्णता का काल शक सं. 738 (816 ई.) माना है। उन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित भाषा में मणिप्रवालन्याय से धवला टीका की रचना की है। यह टीका 72000 श्लोक प्रमाण है। वे अपनी दूसरी टीका जयधवला केवल 20000 श्लोक प्रमाण ही लिख सके थे कि असमय में उनका स्वर्गारोहण हो गया था।
धवला टीका में सिद्धान्त के अनेक विषयों का उपनिबन्धन है। परम्परानुमोदित विषय को ही प्रस्तुत करने का नाम उपनिबन्धन कहलाता है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि धवला टीका में श्री वीरसेनाचार्य ने जो लिखा है, वह सब वही है जिसे श्रुतधराचार्य श्री धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि ने तीर्थकरवाणी के रूप में परम्परा से अवधारण किया था। इससे धवला टीका की प्रामाणिकता तो असंदिग्ध है ही, उसमें उद्धृत गाथायें एवं श्लोक आज समाज का यथार्थ मार्गदर्शन करने में पूर्णतया समर्थ हैं। धवला में श्री वीरसेनाचार्य ने सूत्रों में प्राप्त पारस्परिक विरोधाभासों का सयुक्तिक समन्वय करते हुए समाधान प्रस्तुत किया है। इसमें एक ओर जहाँ पूर्वाचार्यों की मान्यताओं का पुष्टीकरण दृष्टिगत होता है तो दूसरी और दार्शनिक मान्यताओं का युक्तियुक्त सम्यक् प्रतिपादन। इसमें प्राप्त पारिभाषिक शब्दों के व्युत्पत्तिमूलक निर्वचन तो आदर्श निदर्शन हैं।
प्रस्तुत उद्धरण संकलन में धवला टीका में उद्धृत पूर्वाचायों की गाथाओं एवं श्लोकों को इस भावना से एक स्थान पर एकत्र किया गया है, जिससे अध्येता सिद्धान्त-विषयों की परिभाषाओं एवं कथ्यों को धवलाकार की भावना एवं उनके द्वारा किये गये उपनिबन्धन के अनुसार जान सकें। संकलन में कुछ भी नया नहीं है, अर्थसहित धवला की 16 पुस्तकों से संकलित करके मात्र एकत्र उपस्थित किया गया है। संकलन की मूल प्रेरणा श्री रूपचन्द जी कटारिया की रही है, वे आगम की सुरक्षा के लिए सतत