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धवला पुस्तक 1
31 योग का स्वरूप मणसा वचसा कारण चावि जुत्तस्स विरिय-परिणामो। जीवस्स प्पणिओओ जोगो त्ति जिणेहि णिहिट्ठो।।88।।
मन, वचन और काय के निमित्त से होने वाली क्रिया से युक्त आत्मा के जो वीर्य विशेष उत्पन्न होता है, उसे योग कहते हैं। अथवा जीव के प्रणियोग अर्थात् परिस्पन्दरूप क्रिया को योग कहते हैं, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कथन किया है।।88।।
वेद का स्वरूप वेदस्सुदीरणाए बालत्तं पुण णियच्छेद बहु सो। थी-पुं-णसए वि य वेए त्ति तओ हवइ वेओ।।89।।
वेद कर्म की उदीरणा से यह जीव नाना प्रकार के बालभाव अर्थात् चांचल्य को प्राप्त होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव तथा नपुंसकभाव का वेदन करता है, इसलिये उस वेद कर्म के उदय से प्राप्त होने वाले भाव को वेद कहते हैं।।89।।
कषाय का स्वरूप सुह-दुक्ख-सुबहु-सस्सं कम्म-क्खेत्तं कसेदि जीवस्स। संसार-दूर-मेरं तेण कसायो त्ति णं बेति।।90।।
सुख, दुःख आदि अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसार रूप मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र को जो कर्षण करती हैं, उन्हें कषाय कहते हैं।।90।।
ज्ञान का स्वरूप जाणइ तिकाल-सहिए दव्व-गुणे पज्जए य बहु-भेए। पच्चक्खं च परोक्खं अणेण णाणं ति णं बेति।।91।।