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धवला पुस्तक 1
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गय-गवल-सजल-जलहर-परहुव-सिहि-गलय-भमर-संकासो। हरिउल-वंस-पईवो सिव-माउव-वच्छओ जयऊ।। 66 ।।
समान वर्ण वाले, हरिवंश के प्रदीप और शिवादेवी माता के लाल ऐसे नेमिनाथ भगवान् जयवन्त हों।।66।।
नयवाद की विशेषता जावदिया वयण-वहा तावदिया चेव होंति णय-वादा। जावदिया णय-वादा तावदिया चेव होंति पर-समया।।67।।
जितने भी वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद अर्थात् नय के भेद हैं और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय हैं।।67।।
णत्थि णएहि विहूणं सुत्तं अत्थो व्व जिणवरमदम्हि। तो णय-वादे णिउणा मुणिणो सिद्धतिया होति।।68।। तम्हा अहिगय-सुत्तेण अत्थ-संपायणम्हि जइयव्वं। अत्थ-गई वि य णय-वाद-गहण-लीणा दुरहियम्मा।।69।।
जिनेन्द्र भगवान् के मत में नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है, इसलिये जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं वे सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता समझने चाहिये। अतः जिसने सूत्र अर्थात् परमागम को भले प्रकार जान लिया है, उसे ही अर्थसंपादन में अर्थात् नय और प्रमाण के द्वारा पदार्थ के परिज्ञान करने में प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि पदार्थों का परिज्ञान भी नयवादरूपी जंगल में अन्तर्निहित है। अतएव दुरधिगम्य अर्थात् जानने के लिये कठिन है।।68-69।।
पापबन्ध का अकारण रूप आचरण कथं चरे कध चिठे कधमासे कधसए। कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झई।।70।।