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धवला उद्धरण
22 दक्षिण दिशा में वैभार और नैऋत दिशा में विपुलाचल नामके पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत त्रिकोण आकार वाले हैं।।53।।
धनुराकारश्छिन्नो वारुणवायव्यसोम्यदिक्षु ततः। वृत्ताऔतिरेशान्यां पाण्डुः सर्वे कुशाग्रवृताः।।54।।
पश्चिम, वायव्य और सौम्य दिशा में धनुष के आकार वाला फैला हुआ छिन्न नामका पर्वत है। ऐशान दिशा में वृत्ताकार पाण्डु नामका पर्वत है। ये सब पर्वत कुश के अग्रभागों से ढ़के हुए हैं।।54।।
धर्मतीर्थ की उत्पत्ति का काल इमिसे वसप्पिणीए चउत्थ-समयस्म पच्छिमे भाए। चौत्तीस-वास-सेसे किंचि विसेसूणए संते।।55।। वासस्स पढम-मासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले। पाडिवद-पुव्व-दिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिहिम्हि।।56।।
इस अवसर्पिणी कल्पकाल के दःषमा-सषमा नामके चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौंतीस वर्ष बाकी रहने पर, वर्ष के प्रथम मास अर्थात् श्रावण मास में, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्ण पक्ष में, प्रतिपदा के समय आकाश में अभिजित नक्षत्र के उदित रहने पर तीर्थ अर्थात धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।।55-56।। सावण-बहुल-पडिवदे रुद्द-मुहूत्ते सुहोदए रविणो। अभिजिस्स पढम-जोए एत्थ जुगाई मुणेयव्वो।।57।।
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के बिद रुद्र मुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिये।।57।।