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धवला पुस्तक 13
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पृथक्त्व का स्वरूप दव्वाइमणे गाई तीहि वि जोगेहि जेण ज्झायंति। उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं ति तं भणिदं।।58।।
यतः उपशान्त मोह जीव अनेक द्रव्यों का तीनों ही योगों के आलम्बन से ध्यान करते हैं इसलिये उसे पृथक्त्व ऐसा कहा है।।58।।
सवितर्क का स्वरूप जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्थकुसलो य। ज्झायदि ज्झाणं एदं सविदक्कं तेण तं ज्झाणं।।59।।
यतः वितर्क का अर्थ श्रुत है और यतः पूर्णगत अर्थ में कुशल साधु ही इस ध्यान को ध्याते हैं, इसलिये इस ध्यान को सवितर्क कहा है।।59॥
सवीचार का स्वरूप अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण तगं सुत्ते उत्तं सवीचारं।।60।।
अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रम वीचार है। जो ऐसे संक्रम से युक्त होता है उसे सूत्र में सवीचार कहा है।।60।।
एकत्व का स्वरूप जेणेगमेव दव्वं जोगेणे क्केण अण्णदरएण। खीणकसाओ ज्झायइ तेणेयत्तं तगं भणिदं।।61।।
यतः क्षीणकषाय जीव एक ही द्रव्य का किसी एक योग के द्वारा ध्यान करता है, इसलिये उस ध्यान को एकत्व कहा है।।61।।