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धवला पुस्तक 13
कहा है उस सबसे युक्त और सर्वनय समूहमय समयद्भाव का ध्यान करे।।49।।
ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादिचिंतणापरमो । होई सुभावियचित्तो धम्मज्झाणे जिह व पुव्वं ॥50॥
ऐसा ध्यान करके उसके अन्त में मुनि निरन्तर अनित्य आदि भावनाओं के चिन्तवन में तत्पर होता है। जिससे वह पहले के समान धर्म्यध्यान में सुभावित्तचित्त होता है |50||
ध्यान का लक्षण
अंतमुत्तमेतं चिंतावत्थाणमे गवत्थु म्हि । छदुमत्थाणं ज्झाणं जोगणिरोहो जिणाणं तु । 51।। एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्त काल तक चिन्ता का अवस्थान होना छद्मस्थों का ध्यान है और योग निरोध जिन भगवान् का ध्यान है।।51।।
अतो मुहुत्तपरदो चिंताज्झाणंतरं व होज्जाहि । सुचिरं पि होज्ज बहुवत्थुसंकमे ज्झाणसंताणो ।। 52।। अन्तर्मुहूर्त के बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है, या चिरकाल तक बहुत पदार्थों का संक्रम होने पर भी एक ही ध्यान सन्तान होती 115211
धर्म्य ध्यानी की लेश्या
होति कमविसुद्धाओ लेस्साओ पीय- पउम - सुक्काओ। धम्मज्झाणो वगयस्स तिव्व-मंदादिभेयाओ ||53||
धर्म्य ध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्र - मन्द आदि भेदों को लिये हुए क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यायें होती हैं।।53।।