________________
धवला उद्धरण
168
जल-जंघ-तंतु-फल-पुप्फ-वीय-आगास-सेडिगइकुसला। अट्ठविहचारणगण पइरिक्कसुहं पविहरंति।।21।।
जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी का आलम्बन लेकर गमन में कुशल ऐसे आठ प्रकार के चरणागण अत्यन्त सुखपूर्वक विहार करते हैं।।21।। विणएण सदमधीदं किह वि पमादेण होदि विसरदं। तमुबट्ठादि परभवे केवलणाणं च आहवदि।।22।।
विनय से अधीत श्रुतज्ञान यदि किसी प्रकार प्रमाद से विस्मृत हो जाता है तो उसे (औत्पत्तिकी प्रज्ञा) परभव में उपस्थित करती है और केवलज्ञान को बुलाती है।।22।।
ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबंधरि। दाह्य ऽगिर्दाहको न स्यादसति प्रतिबंधरि।।22।।
ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्ध का अभाव होने पर ज्ञेय के विषय में ज्ञान रहित कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता। (क्या) अग्नि प्रतिबन्ध के अभाव में दाह्य पदार्थ का दाहक नहीं होता है? होता ही है।।22।।
खीणे दंसणमोहि चरित्तमोह तहे व घाइतिए। सम्मत्त-विरयणणी खइए ते होंति जीवणं।।23।।
दर्शनमोह, चारित्रमोह तथा तीन अन्य घातिया कर्मों के क्षीण हो जाने पर जीवों के सम्यक्त्व, वीर्य, और ज्ञान रूप वे क्षायिक भाव होते हैं।23।।
उप्पण्णम्मि अणंते णट्ठम्मि य छादुमत्थिए णाणे। देविंद-दाणविदा करेंति महिमं जिणवरस्स।।24।। अनन्त ज्ञान के उत्पन्न होने और छाद्मस्थिक ज्ञान के नष्ट हो जाने