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धवला उद्धरण
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मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन दर्शनावरण, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँचों अन्तराय तथा संज्वलनचतुष्क और नव नोकषाय ये तेरह मोहनीय कर्म देशघाती होते हैं।।15।। एसो य सस्सदो अप्पा णाण-दंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।16।।
ज्ञान और दर्शनरूप लक्षण वाला मेरा आत्मा ही एक और शाश्वत है। शेष समस्त संयोगरूप लक्षण वाले पदार्थ मुझसे बाह्य हैं।।16।।
सिद्ध का लक्षण असरीरा जीवघणा उवजुत्ता दंसणे य णाणे य। सायारमणायारं लक्खणमेयं तु सिद्धाण।।17।।
जो अशरीर अर्थात् काय रहित हैं, शुद्ध जीव प्रदेशों से घनीभूत हैं, दर्शन और ज्ञान में अनाकार व साकार उपयोग से उपयुक्त हैं, वे सिद्ध हैं। यह सिद्ध जीवों का लक्षण हैं।।17।।
नय का स्वरूप विधिविषक्त प्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानं। गुणो परो मुख्यनियामहेतुर्नयः स दृष्टांतसमर्थनस्ते।।18।।
(हे श्रेयांस जिन!) आपके मत में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन स्व-चतुष्टय की अपेक्षा किये जाने वाले विधान का स्वरूप परचतुष्टय की अपेक्षा से होने वाले प्रतिषेध से सम्बद्ध पाया जाता है। विधि और प्रतिषेध, इन दोनों में से एक प्रधान होता है वही प्रमाण है और दूसरा गौण है। इनमें जो प्रधानता का नियामक है वही नय है, जो दृष्टान्त का अर्थात् धर्म विशेष का समर्थन करता है।।18।।