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धवला उद्धरण
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कर्मों के उदय और क्षय की अवस्था दव्व-गुण-पज्जए जे जस्सुदएण य ण जाणदे जीवो। तस्सक्खएण सो च्चिय जाणदि सव्वं तयं जुगवं ।।4।।
जिस ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों को नहीं देखता है, उसी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से वही जीव उन सभी तीनों को एक साथ देखने लगता है।।4।।
दव्व-गुण-पज्जए जे जस्सुदएण य ण पस्सदे जीवो। तस्सक्खएण सो च्चिय पस्सदि सव्वं तयं जुगवं ।।5।।
जिस दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव जिन द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों को नहीं देखता है, उसी दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से वही जीव उन सभी तीनों को एक साथ देखने लगता है ।।5।।
जस्सोदएण जीवो सुहं व दुक्खं व दुविहमणुहवइ। तस्सोदयक्खएण दु जायदि अप्पत्थणंतसुहो।।6।।
जिस वेदनीय कर्म के उदय से जीव सुख और दुःख इस दो प्रकार की अवस्था का अनुभव करता है उस कर्म के उदय के क्षय से आत्मोत्थ अनंतसुख उत्पन्न होता है।।6।। मिच्छत्त-कसायासंजमेहि जस्सोदएण परिणमइ। जीवो तस्सेव खया त्तव्विवरीदे गुणे लहइ।।7।।
जिस मोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व, कषाय और असंयम रूप से परिणमन करता है, उसी मोहनीय के क्षय से इनके विपरीत गुणों को प्राप्त करता है।।7।।
जस्सोदएण जीवो अणुसमयं मरदि जीवदि वराओ। तस्सोदयक्खएण दु भव-मरणविवज्जियो होइ।8।। जिस आयु कर्म के उदय से बेचारा जीव प्रतिसमय मरता और जीता