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धवला पुस्तक 6
139 कृष्टि नियम से असंख्यात स्थिति भेदों में और नियमतः अनन्त अनुभागों में होती है।।34।। सव्वाओ किट्टीओ विदियट्ठिदिए दु होंति सव्विस्से। जं किट्टि वेदयदे तिस्से अंसा य पढमाए।।35।।
सब अर्थात् संग्रह व अवयव कृष्टियां समस्त द्वितीय स्थिति में होती हैं, परन्तु जिसे कृष्टि का वेदन करता है उसके अंश प्रथम स्थिति में रहते हैं।।35।।
जिनेन्द्र दर्शन का महत्त्व दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातकुञ्जरम्। शतधा भेदमायाति गिरिवज्र हतो यथा।।1।।
जिनेन्द्रों के दर्शन से पाप संघात रूपी कुंजर के सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार कि वज्र के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं।।1।।
दीपो यथा निर्वृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरीक्षम्। दिशन्न काचिद्विदिशन्न काचित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम्।।2।। जीवस्तथा निर्वृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काचिद्विदिशं न काचित्क्लेशयात्केवलमेति शान्तिम्।3।।
"जिस प्रकार दीपक जब बुझता है तब वह न तो पृथिवी की ओर जाता न आकाश और न किसी दिशा को जाता है, न विदिशा को, किन्तु तैल के क्षय होने से केवल शान्त हो जाता है, उसी प्रकार निर्वृत्ति को प्राप्त जीव न पृथिवी की ओर जाता है न आकाश की ओर, न किसी दिशा को जाता न विदिशा को, किन्तु क्लेश के क्षय हो जाने से केवल शान्ति को प्राप्त होता है।।2-3।।