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धवला उद्धरण
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मिथ्यादृष्टि जीव नियम से सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो श्रद्धान नहीं करता है, किन्तु असर्वज्ञों के द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव का अर्थात् पदार्थ के विपरीत स्वरूप का श्रद्धान करता है।।15।।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्ममिच्छाइट्ठी सागारो वा तहा अणागारो। तह वंजणोग्गहम्मि दु सागारो होदि बोद्धव्वो।।6।।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव साकारोपयोगी भी होता है और अनाकारोपयोगी भी होता है, किन्तु व्यंजनावग्रह में अर्थात् विचारपूर्वक अर्थ को ग्रहण करने की अवस्था में साकारोपयोगी ही होता है, ऐसा जानना चाहिए।।16।।
दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक और निष्ठापक दंसणमोहक्खवणापट्ठवओ कम्मभूमिजादो दु। णियमा मणुसगदीए गिट्ठवओ चावि सव्वत्थ।।7।।
कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ और मनुष्यगति में वर्तमान जीव ही नियम से दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक अर्थात् प्रारम्भ करने वाला होता है, किन्तु उसका निष्ठापूर्वक अर्थात् पूर्ण करने वाला सर्वत्र अर्थात् चारों गतियों में होता है।।7।।
निधत्ति और निकाचित उदए संकम-उदए चदुसु वि दाएं कमेण णो सक्क। उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्म।।18।।
जो कर्म उदय में न दिया जा सके वह उपशान्त, जो संक्रमण व उदय दोनों में ही न दिया जा सके वह निधत्त तथा जो उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण व उदय, चारों में ही न दिया जा सके वह निकाचित कारण