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धवला पुस्तक 6
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होता है, उसके अनन्तर पश्चात् समय में मिथ्यात्व भजितव्य है अर्थात् वह कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदक अथवा उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है और कदाचित् सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है ॥12॥
कम्माणि जस्स तिणि दु णियमा सो संकमेण भजिदव्वो । एयं जस्सदुकम्मं ण य संकमणेण सो भज्जो ॥13॥
जिस जीव के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति, ये तीन कर्म सत्ता में होते हैं अथवा 'तु' शब्द से मिथ्यात्व या सम्यक्त्व प्रकृति के बिना शेष दो कर्म सत्ता में होते हैं, वह नियम से संक्रमण की अपेक्षा भजितव्य है, अर्थात् कदाचित् दर्शनमोह का संक्रमण करने वाला होता है और कदाचित् नहीं भी होता है। जिस जीव के एक ही कर्म सत्ता में होता है वह संक्रमण की अपेक्षा भजनीय नहीं है, अर्थात् वह नियम से दर्शनमोह का असंक्रमक ही होता है । 31
सम्यग्दृष्टि जीव
सम्माइट्ठी सद्दहदि पवयणं णियमसा दु उवइट्ठ । सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा ।।14।।
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता है ।।4।।
मिथ्यादृष्टि जीव
मिच्छाइट्ठी णियमा उवइट्ठ पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भावं उवइट्ठ वा अणुवइट्ठ ॥ 5 ॥