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धवला पुस्तक 6
129 दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम करने वाला जीव चारों ही गतियों में जानना चाहिए। वह जीव नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है।2।।
सणिव्वरय-भवणेसु य समुद्द-दीव-गुह-जोइस-विमाणे। अहिजोग्ग-अणहिजोग्गे उवसामो होदि णायव्वो।।3।।
इन्द्रक, श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरकों में, सर्व-प्रकार के भवनवासी देवों में, सर्व समुद्रों और द्वीपों में गुह अर्थात् समस्त व्यन्तर देवों में समस्त ज्योतिष्क देवों में, सौधर्मकल्प से लेकर नव ग्रैवेयक विमान तक विमानवासी देवों में, अभियोग्य अर्थात् वाहनादि कर्म में नियुक्त वाहन देवों में, उससे भिन्न किल्विषिक आदि अनुत्तम तथा परिषद आदि उत्तम देवों में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होता है।।3।।
उपशम सम्यक्त्व की विशेषता उवसामगो य सव्वो णिव्वाघादो तहा णिरासाणो। उवसंते भजियव्वो णिरासणो चेव खीणम्हि।।4।।
दर्शनमोह का उपशामक सर्व ही जीव निर्व्याघात अर्थात् उपसर्गादिक के आने पर भी विच्छेद और मरण से रहित होता है तथा निरासान अर्थात् सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है। उपशान्त अर्थात् उपशम सम्यक्त्व होने के पश्चात् भजितव्य है, अर्थात् सासादन परिणाम को कदाचित् प्राप्त होता भी है और कदाचित् नहीं भी प्राप्त होता है। उपशमसम्यक्त्व का काल क्षीण अर्थात् समाप्त हो जाने पर मिथ्यात्व आदि किसी एक दर्शन मोहनीय प्रकृति का उदय आने से मिथ्यात्व आदि भावों को प्राप्त होता है। अथवा दर्शन मोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने पर निरासान अर्थात् सासादन परिणाम से सर्वथा रहित होता है।।4।।