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धवला पुस्तक 4
115 उप्पज्जति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स। दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पण्णमविणठें।।29।।
पर्यायार्थिक नय के नियम से पदार्थ उत्पन्न भी होते हैं और व्यय को भी प्राप्त होते हैं, किन्तु द्रव्यार्थिक नय के नियम से सर्व-वस्तु सदा अनुत्पन्न और अनिष्ट हैं अर्थात् ध्रौव्यात्मक है।।29।।
अनन्त का स्वरूप संते वए ण णिहादि काले णाणतएण वि। जो रासी सो अणंतो त्ति विणिहिट्ठो महेसिणा।।30।।
व्यय के होते रहने पर भी अनन्त काल के द्वारा भी जो राशि समाप्त नहीं होती है, उसे महर्षियों ने 'अनन्त' इस नाम से विनिर्दिष्ट किया है।।30॥
सासादन गुणस्थान का काल उवसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ता ह होई अवसिट्ठा। पडिवज्जंता साणं तत्तियमेत्ता य तस्सद्धा।।31।।
जितने प्रमाण उपशम सम्यक्त्व का काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासादन गुणस्थान को प्राप्त होने वाले जीवों का भी उतने प्रमाण ही उसका अर्थात् सासादन गुणस्थान का काल होता है।।31।। उवसमसम्मत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज अवसिट्ठा। तो सासणं पवज्जइ णो हेढुक्ककालेसु।।32।।
यदि उपशम सम्यक्त्व का काल छह आवली प्रमाण अवशिष्ट होवे, तो जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है। यदि इससे अधिक काल अवशिष्ट रहे, तो सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है।।32।।