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धवला उद्धरण
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पंच अस्तिकाय, षट् जीवनिकाय, कालद्रव्य तथा अन्य जो पदार्थ केवल आज्ञा अर्थात् जिनेन्द्र के उपदेश से ही ग्राह्य हैं, उन्हें यह सम्यक्त्वी जीव आज्ञाविचय धर्म्य ध्यान से संचय करता है अर्थात् श्रद्धान करता है।।6।।
काल द्रव्य सब्भावसहावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूओ कालो णियमेण पण्णत्तो।।7।।
सत्तास्वरूप स्वभाव वाले जीवों के, तथैव पुद्गलों के और 'च' शब्द से धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और आकाश द्रव्य के परिवर्तन में जो निमित्त कारण हो, वह नियम से काल द्रव्य कहा गया है।।7।।
समओ णिमिसो कट्टा कला य णाली तदो दिवारत्ती। मास उड अयण संवच्छरो त्ति कालो परायत्तो।।8।।
समय, निमिष, काष्ठा, कला, नाली तथा दिन और रात्रि, मास, ऋतु, अयन और संवत्सर इत्यादि काल परायत्त हैं अर्थात् जीव, पुद्गल एवं धर्मादिक द्रव्यों के परिवर्तनाधीन हैं।।8।।
णत्थि चिरं वा खिप्पं वुत्तारहिदं तु सा वि खलु वुत्ता। पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्च भवो।।9।।
वर्तना रहित चिर अथवा क्षिप्र की अर्थात् परत्व और अपरत्व की कोई सत्ता नहीं है। वह वर्तना भी पुद्गल द्रव्य के बिना नहीं होती है। इसलिए काल द्रव्य पुद्गल के निमित्त से हुआ कहा जाता है।।9।।
मुहूर्त का लक्षण उच्छ्वासानां सहस्राणि त्रीणि सप्त शतानि च। त्रिसप्ततिः पुनस्तेषां मुहूर्तो ह्येक इष्यते ।।10।।