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________________ ५०] [प्रतिक्रमण-आवश्यक अज्ञानमय को भावथी अज्ञानभाव ज ऊपजे, ते कारणे अज्ञानीना अज्ञानमय भावो बने. १२६. अर्थ :-कारण के ज्ञानमय भावमांथी ज्ञानमय ज भाव उत्पन्न थाय छे तेथी ज्ञानीना सर्व भावो खरेखर ज्ञानमय ज होय छे. अने, कारण के अज्ञानमय भावमाथी अज्ञानमय ज भाव उत्पन्न थाय छे तेथी अज्ञानीना भावो अज्ञानमय ज होय छे.. कणयमया भावादो जायंते कुंडलादओ भावा । अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ॥१३०॥ अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते । णाणिस्स दु णाणमया सब्बे भावा तहा होति ॥१३१॥ ज्यम कनकमय को भावमांथी कुंडलादिक ऊपजे, पण लोहमय को भावथी कटकादि भावो नीपजे; १३०. त्यम भाव बहुविध ऊपजे अज्ञानमय अज्ञानीने, पण ज्ञानीने तो सर्व भावो ज्ञानमय अम ज बने. १३१. अर्थ :-जेम सुवर्णमय भावमांथी सुवर्णमय कुंडळ वगेरे भावो थाय छे अने लोहमय भावमांथी लोहमय कडां वगेरे भावो थाय छे, तेम अज्ञानीने (अज्ञानमय भावमांथी) अनेक प्रकारना अज्ञानमय भावो थाय छे अने ज्ञानीने (ज्ञानमय भावमांथी) सर्व ज्ञानमय भावो थाय छे. (३) पुण्य अने पापर्नु स्वरूप कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥१४५॥
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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