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[प्रतिक्रमण-आवश्यक ४. क्षेत्र-सामायिक-महल, उपवनादिक रमणीक, शमशानादिक अरण्यक क्षेत्र में राग-द्वेष छोड़ना सो क्षेत्र-सामायिक' है।
५. काल-सामायिक-हिम, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद ऋतु में और रात्रि, दिवस व शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष इत्यादिक काल में राग-द्वेष का वर्जन, सो काल-सामायिक है।
६. भाव-सामायिक-समस्त जीवों के दुःख न हो ऐसे मैत्रीभाव से तथा शुभ-अशुभ परिणामों के अभाव को 'भाव-सामायिक' कहते हैं। वैर-त्याग चिन्तन:
“सामायिक" करने वाला समस्त जीवों में मैत्री धारण करता हुआ परम क्षमा को धारण करता है। कोई जीव मेरा वैरी नहीं है, अज्ञानवश उपार्जन किया मेरा कर्म ही वैरी है। मैंने स्वयं अज्ञान भाव से क्रोधी, मानी, लोभी होकर विपरीत परिणाम किये। जिस वस्तु-व्यक्ति से मेरा अभिमान पुष्ट नहीं हुआ उसको वैरी माना, किसी ने मेरी प्रशंसा-स्तुति नहीं की, उसी को वैरी समझा। मेरा आदर-सत्कार नहीं किया व उच्च-स्थान नहीं दिया उसको वैरी समझा। किसी ने मेरे दोषों को प्रगट किया उसको वैरी जाना-सो यह सब मेरी कषाय से, दुर्बुद्धि से अन्य जीवों में वैर-बुद्धि उपजी है, इसको छोड़कर क्षमा अंगीकार करता हूँ और अन्य समस्त जीव मेरा अज्ञान भाव जानकर मुझे क्षमा करें। आत्म चिन्तन
समस्त दिन में प्रमाद के वश होकर तथा कषायों के वशीभूत होकर अथवा विषयों में रागी-द्वेषी. होकर किन्हीं