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प्रतिक्रमण- आवश्यक ]
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प्रकारना दोषो थवा छतां जीवनो एटलो पुरुषार्थ टकी रहे छे के सम्यगदर्शन अने व्रतनो भंग थइ जतो नथी । पण चोथो दोष मोटो छे; ते दोष लागतां जीवना व्रतमां भंग थाय छे अने जो सत्य श्रद्धामांथी जीव खसी जाय तो ते मिथ्यादृष्टि थइ जाय छे अने तेथी तेनां सम्यग्दर्शन अने व्रत बन्ने नष्ट थाय छे।६।
वचननानिमित्ते जीवे करेला दोषोनी क्षमा : - यदर्थमात्रापदवाक्यहीनं मया प्रमादाद्यदि किंञ्चनोक्तम् । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी, सरस्वती केवलबोधलब्धिम् ।।१०।।
अन्वयार्थ : - [ देवी सरस्वती ] हे सरस्वती जिनवाणी देवी ! [ यदि ] जो [ प्रमादात् ] प्रमादथी [ यद् ] जे [ अर्थमात्रापदवाक्यहीनं ] (जिन वचनोना अर्थ, मात्रा, पद, वाक्यथी हीन ( ओछु ) [ किञ्चन ] कांइपण [भया] माराथी [ उक्तं ] बोलायुं होय [ तत् ] ते [क्षमित्वा ] माफ करीने [मे] मने [ केवलबोधलब्धिम् ] केवलज्ञाननी प्राप्ति [ विदधातु ] धारण करावो ।
विशेषार्थ
१. सम्यग्ज्ञाननुं निमित्त जिनवाणी ज होय; सम्यग्ज्ञाननुं प्रथम निमित्त अज्ञानीनी वाणी कदी होइ शके नहि, सम्यग्ज्ञानी पोताना शुद्धोपयोगमां स्थिर रही शकता नथी त्यारे तेओ ज्ञाननी विशेष निर्मळता माटे जिनवाणीनुं श्रवण, वांचन अने मनन करे छे ।
केवलज्ञानने अने सम्यक् श्रुतज्ञानने पण सरस्वती देवी कहेवामां आवे छे। श्रुतज्ञानपूर्वक केवळज्ञान थाय छे, तेथी ज्ञानी सराग अवस्था टाळीने पोताना शुद्धोपयोगमां स्थिर थइ केवलज्ञान प्रकट करवानी भावना करे छे एम आ श्लोकमां दर्शाव्युं छे ।