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प्रतिक्रमण-आवश्यक ]
जीव पोताना हित माटे करे छे। एक जीव कोइ पण परजीवनी करुणा करी शकतो नथी पण पोताना भाव सुधारी शके छे; वळी आटला माटे ज अरिहंत प्रभु अने सिद्ध भगवानने 'करुणासागर' कहेवाय छ। पोतानी करुणा करतां बीजा जीवोने दुःख देवानो भाव थतो नथी ते दुःखी जीवो संबंधी करुणा छ।
६. विपरीत वृत्तिवाळा जीवो प्रत्ये मध्यस्थता—जे जीवोने सम्यग्दर्शन प्रत्ये तद्दन अरुचि छे, मिथ्यादर्शन दृढपणे सेवे छे तथा सम्यग्दर्शनरूप आत्मकल्याणनो बोध सांभळी चीडाय छे ते जीवो वीपरीत वृत्तिवाला छे; एवा जीवो तीव्र राग-द्वेषवाळा होय छे। ते जीवोने जोइ द्वेषभाव न आवे पण पोताने माध्यस्थभाव रहे एम अहीं सम्यग्दृष्टि भावना करे छे। .
७. सदा—आ शब्द ओम सूचवे छे के गाथामां कहेला भावोथी विरुद्ध भावो (अशुभ भावो) मने कदी न हो। आ भावो शुभ राग छे अने शुभ राग ते विकारी भाव होवाथी हमेशा एवा ने एवा टकी शके नहि; माटे ते टळीने मने शुद्ध भाव प्रगटो एवी अहीं ज्ञानीनी भावना छ। मिथ्यादृष्टि जीवने शुभभाव टळीने अशुभ भाव नियमथी थाय छे; केमके शुभभाव ते विकारी छे ने ते बदल्या विना रहे नहि तेथी मिथ्यादृष्टिने थयेल शुभभाव अल्पकाळमां टळीने अशुभ भाव थया विना रहेता नथी।
८. आ जीव परचें कांइ करी शकतो नथी; जीवे पोते पोताना भाव केवा करवा ते आमां कयुं छे। श्री मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) ना सातमां अध्यायमां शुभास्रवनुं वर्णन करतां अग्यारमां सूत्रमा 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु-सत्व, गुणाधिक, किलश्यमान-दुःखी अने अविनयी [ उद्धत, प्रकृतिधारकमिथ्यादृष्टि]-ए जीवो प्रत्ये अनुक्रमे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य अने