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[प्रतिक्रमण-आवश्यक प्रकारना दुःखोथी भरपूर संसारमा सदा बळीझळी रहुं छु. जेम ते माछली ज्यारे जळमां रहे छे त्यारे सुखी रहे छे तेम ज्यां सुधी मारुं मन आपना करुणारसपूर्ण अत्यंत शीतल चरणोमां प्रविष्ट (प्रवेशेलु) रहे छे त्यां सुधी हुँ पण सुखी रहुं छु. तेथी हे नाथ! मारुं मन आपना चरण कमळो छोडी अन्य स्थळे के ज्यां हं दुःखी थाउं त्यां प्रवेश न करे प्रार्थना छे.
२३. अर्थ : हे भगवन् ! मारुं मन, इन्द्रियोना समूहद्वारा बाह्य पदार्थो साथे संबंध करे छे तेथी नाना प्रकारना कर्मो आवी मारा आत्मा साथे बंधाय छे; परंतु वास्तविकपणे हुं ते कर्मोथी सदाकाल सर्व क्षेत्रे जुदो ज छु तथा ते कर्मो आपना चैतन्यथी जुदा ज छे अथवा तो चैतन्यथी आ कर्मोने भिन्न पाडवामां आप ज कारण छो; तेथी हे शुद्धात्मन् ! हे जिनेद्र! मारी स्थिति निश्चयपूर्वक आपमां ज छे.
भावार्थ:-यदि निश्चयथी जोवामां आवे तो हे जिनेन्द्र ! आप तथा हुं समान ज छीओ. केम के निश्चयनयथी आपनो आत्मा कर्मबंध रहित छे तेम मारा आत्मा साथे पण कोइ प्रकारना कर्मोनुं बंधन रहेतुं नथी; तेथी हे भगवन् ! मारी स्थिति निश्चयपूर्वक आपना स्वरूपमां ज छे.
धर्मीनी अंतर्भावना:
२४. अर्थ:-हे आत्मन् ! तारे नथी तो लोकथी काम, नथी तो अन्यना आश्रयथी काम; तारे नथी तो द्रव्यथी (लक्ष्मीथी) प्रयोजन, नथी तो शरीरथी प्रयोजन, तारे वचन तथा ईंद्रियोथी पण कांइ काम नथी, तेम ज *(दश) प्राणोथी पण प्रयोजन नथी; अने नाना प्रकारना विकल्पोथी पण कांइ काम नथी, केम के ते सर्व पुद्गल द्रव्यना ★ दश प्राण :-पांच इन्द्रिय, त्रण बल (मनबल, वचनबल, कायबल) आयु
श्वासोच्छ्वास.