________________
६२. अप्रतिम छवि हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! ऊपर सूरज सौन्दर्य बिखेर रहा था नीचे हरित मखमली चादर-बिछी हुई थी। मैं अल्मोड़ा की वादियों में प्रकृति का सौन्दर्य निहार-रहा था इन्द्रधनुषी छटा छाई हुई थी सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था एक अद्भुत सौन्दर्य की सृष्टि हो रही थी ऐसे में मेरे हृदय गगन में प्रभु के सौन्दर्य की अप्रतिम छवि दिखाई दी। मैंने उसे अपने हृदय के अन्तस्तल में समाहित कर लिया पर न जाने कब, वह अद्भुत छवि आँख मिचौनी की तरह मेरे हृदय से अदृश्य हो गई तब से उसके पुनरागमन की प्रतीक्षा किये बैठा हूँ हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो!