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५३. अनन्त की आराधना हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! मैं अनन्त की आराधना को प्रस्तुत हूँ सम्पूर्ण सूक्ष्मातिसूक्ष्म शक्तियों सहित प्रभु की आराधना में, अन्तर की साधना में योग सब प्रभु की ओर बढ़े आनन्द चतुर्दिक चढ़े हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो!! मेरे मन-मन्दिर में आनन्द छा रहा है हृदय गगन में प्रेम रूपी सूर्य चमक रहा है कण-कण में प्रभु का प्रेम शोभायमान है सारी सृष्टि चेतन तत्त्व से ओतप्रोत है मेरे प्रभो! मेरे विभो! अनन्त की इस आराधना में जीवन की इस साधना में मेरा कण-कण लीन है मैं प्रसन्न हूँ- आनन्दमय हूँ हे मेरे प्रभु! हे मेरे विभो! सम्पूर्ण शक्तियों सहित मैं प्रभु की आराधना में लीन हूँ... तल्लीन हूँ हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो!
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