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४३. अमृत ही अमृत
हे मेरे आत्मदेव !
अनन्त अखण्ड अमृत
इस धरती पर चहुं ओर
बिखरा हुआ है
तू अपनी ज्ञान रूपी दृष्टि बढ़ा,
समस्त सृष्टि का अमृत
में भर जायेगा
तुझ
तू अनन्त अमृत का पान कर अमर हो जायेगा,
हे मेरे आत्मदेव, मेरे पियूष घट अनन्त के अनहद नाद को अपने अन्तर श्रवणों से सुन अनन्त की अनन्तध्वनि चहुं ओर बज रही है प्रभु मिलन को मेरी आत्मा सज रही हैं। अनन्त अखिलेश के श्री चरणों में
मेरे अनन्त प्रणाम मेरे अनन्त प्रणाम ।।
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