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एक अप्रतिम
भावात्मक सूजन,
हिन्दी साहित्य की आधुनिक विधाओं में एक विधा गद्यकाव्य की भी है। साहित्याचार्यों ने काव्य शास्त्रीय भाषा में पृथक से कुछ नाम दिये हैं :- "वृत्तगन्धी-गद्य, गद्य-गीतिका, गद्य-गीत। इस विधा का हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक छोटा सा काल खण्ड रहा है, वह भी स्वाधीनता के पूर्व। इधर पिछले दशकों में - यह विधा सुप्त प्राय: सी रही है। बौद्धिकता के प्रवेग में जीवन की संवेदना, राग, लय, गीतात्मकता, समयता
आदि का हास स्वाभाविक है। किन्तु इस साहित्य विधा का अपना सौन्दर्य है, सौष्ठव है, माधुर्य है और कल्पनालोक का दिव्य वैभव भी। इसकी आत्मनिष्ठता, भावात्मकता और वैयक्तिता हृदय को सीधा स्पर्श करती है।
इस तीव्र भावात्मक विधा के प्राय: विस्मृति लोक में जाते इस अति बौद्धिक और तार्किक होते समय में श्री जतनराजजी मेहता कृत 'अन्तर की ओर गद्य गीत संग्रह एक अप्रतिम और दिव्य आनंद की अनुभूति करता है। यह एक भक्तिभाव प्रवण आत्मा का आराधन निवेदन है। अपने आराध्य को जो ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्याप्त और उपस्थित हैं और लेखक अत्यन्त भाव गद्-गद् होकर उसे अपने चतुर्दिक अनुभव करता है। मेरे प्रभु, मेरे विभु का अन्तर्नाद इस स्पंदन के प्रत्येक गद्यगीत की पंक्ति-पंक्ति और शब्द-शब्द में है। छायावादियों और रहस्यवादियों की पवित्र कवि-मानसिकता लिये श्री मेहता का भक्तिकाव्य इनमें सर्वत्र विद्यमान है। अपने आत्मदेव को यह कवि का निष्काम, निर्विशेष, निर्विकल्प आत्म समर्पण है, जिसमें उसके जागतिक जीवन की अर्थहीनता और निस्सारता का सार्थक्यपूर्ण समावेश है।
दक्षिणेश्वर से उत्तरेश्वर की ओर उसकी आत्मा का महाप्रस्थान इसका स्पष्ट संकेत हैं, स्पष्ट व्यंजना है।
श्री मेहता भावानुकूल भाषा के प्रयोग में प्रवीण है। उनके इन गद्य गीतों में एक भक्त, एक अध्यात्म पुरुष और एक विजयी कवि की आत्मा के दर्शन होते हैं। मैं श्री मेहता को इतनी भावात्मक रसकृति के लिये साधुवाद देता हूँ। विश्वास है, साहित्य जगत में इस कृति का स्वागत होगा।
रामप्रसाद दाधीच (पूर्व प्रोफेसर) ९३ नैवेद्य, नेहरू पार्क, जोधपुर-३४२००३
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