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कहीं-कहीं आत्म देव के मिलन पर कवि खो जाता है, अपनी सत्ता खो देता है और उसी में विलीन हो जाता है। योगीराज आनन्दधन की तरह वह बोल उठता है :
तेरे-मेरे का भेद अपगत हो गया, स्व-पर का भेद प्रगट हो गया भेद अभेद बन गया द्वैत सब खो गया।
(गीत नं.२७) आधुनिक युग की महान कवयित्री श्री महादेवी वर्मा के गीत "पंथ होने दो अपरिचित” के अन्तर्गत 'मानलो वह मिलन एकाकी विरह में है दुकेला' कितना साम्य रखती है।
परम्परा से हटकर भक्तिमती मीरों की तरह कवि वसन्त में राधा-कृष्णा के झूलने की तैयारी कर रहा है:
मन के हिंडोले पर झूले पड़ गये हैं, राधा और कृष्ण झूलने की तैयारी कर रहे हैं। तन-मन में उल्लास छा गया है कण-कण में चैतन्य समा गया है वीणा का स्वर झंकृत हो उठा है आनन्द गान मुखरित हो उठा है।
(गीत नं. ४९) प्रकृति की गोद में कवि "फूल का पराग मधु-रूप बन गया, जीवन का राग भी प्रभु रूप सज गया” एकत्व योग की कल्पना करता है। (गीत नं. २५) कहीं वह प्रकृति का गीत गा रहा है और कहीं पुरुषार्थ को सम्बल को अविभाज्य मानता है।
कवि ने नामानुरूप अपने भावों को कविता के माध्यम से प्रगट करने का यत्न किया है और उसमें वह सफल भी हुआ है।
लेखक की यह हार्दिक अभिलाषा थी की में इसका संशोधन करूँ और इस पर अपने विचार प्रगट करूँ। संशोधन कर कवि न होते हुए भी अपने विचारों को अभिव्यक्त करता हुआ डॉ. जतनराजजी मेहता को पुन: पुन: साधुवाद देता हूँ। उन्होंने अपने अन्तर आराध्य आत्मदेव को समक्ष रखते हुए जो कुछ अर्पण के रूप में लिखा है, वह उनकी साधना का ही फल है। बहुत-बहुत धन्यवाद।
साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर
सम्मान्य निदेशक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
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