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________________ શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર 43. पवित्रतानुं भूज सहायार छे. જ્ઞાનીની આજ્ઞાએ વર્તવું તે સદાચાર છે. એટલે ઉત્તમ આચાર છે. તેથી કર્મની નિર્જરા થાય છે. જેમ જેમ કર્મની નિર્જરા થાય છે તેમ તેમ આત્મા નિર્મળ થાય છે. એ રીતે સર્વ કર્મની નિર્જરા થતાં પરમ પવિત્ર શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપ પ્રગટે છે. તેથી પવિત્રતાનું મૂળ સદાચાર છે એમ કહ્યું. મન દોરંગી થઈ જતું જાળવવાને – ५४. દોરંગી એટલે રાગદ્વેષવાળું, ચંચળ. "तत्त्वबोध मनोरोध श्रेयोरागात्म शुद्धयः । मैत्रीद्यतश्च येन स्युः तज्ज्ञानं जिनशासने ॥ " - અણગાર ઘર્મામૃત મો અધ્યાય શ્લો-૬ અર્થ :— જિનશાસનમાં 'તત્ત્વબોધમાં, મનોરોધ અને આત્મવિશુદ્ધિ માટે શ્રેયોરાગ (આત્મહિતકારી એવા ચારિત્ર પ્રત્યે અનુરાગ તે શ્રેયોરાગ), મૈત્રીદ્યોત (મૈત્રીને પ્રકાશ કરનાર) જેથી થાય, તેવું જ્ઞાન જિનશાસનમાં છે. જે રાગદ્વેષથી ચંચળ એવા મનને રોકે છે. ७० "सर्व वस्तु जातं अनेकात्मकं” अर्थात् संपूर्ण वस्तु मात्र अनंत धर्मात्मक है। यह जिन शासनका सिद्धांत है। इसके विरुद्ध सर्वथा एकांतरूप वस्तु को माननेवाले सर्वथा एकांतवादी कहे जाते है। सो तत्त्वज्ञान आदि पांच या छ विषय ऐसे है जो इस शासन में ही मिल शकते है- अन्यत्र सर्वत्र एकांतवादी मत में नहीं. १. तत्त्वबोध :- तत्त्व तीन प्रकार का है। १. हेय, २. उपादेय, ३. उपेक्षणीय. इनमें से यथायोग्य अर्थात् हेय का हेय रूपसे, उपादेय का उपादेयरूप से और उपेक्षणीय अर्थात् अनादर, तिरस्कार करने योग्य कार्यों का उपेक्षणीयरूपसे बोध ( प्रतिपत्ति) होना उसको तत्त्वबोध कहते है । ज्ञेय - मात्र जानने योग्य पूरा विश्व ज्ञेय है। लेकिन जो भव्य अजीवादि तत्त्वो के साथ साथ इस जीवतत्त्व का श्रद्धान करता है, ज्ञान प्राप्त करता है और उपेक्षणीय में उपेक्षा अर्थात् अनादर किया करता है वही जीव निर्वाण का भागी हो सकता है। सारांश यह कि सात तत्त्वों में हेय, उपादेय और उपेक्षणीय तत्त्वोंका स्वरूप समजकर उनमें उसी प्रकार का श्रद्धान आदि होना, तत्त्वबोध का वास्तविक स्वरूप है। तत्त्वबोधसे मोक्ष का भागी जीव बन शकता है। परंतु इस प्रकारका तत्त्वबोध जिनशासन - सर्वज्ञ પુષ્પમાળા વિવેચન वीतराग भगवान के मतमें ही बन शकता है। अन्य मतों में नहीं । २. मनोरोध :- चित्तको विषयों की तरफ से हठाना, उसको पर पदार्थों या विषयो की तरफ जाने न देना उसे मनोरोध कहा जाता है । “यद् यद् एव मनसि स्थितिं भवेत । ૭૧ 10 तत् तदैव सहसा परित्यजेत ।" " आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम् । कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद् वाक्कायाभ्यामतत्परः ॥” "आत्मज्ञान विना ज्यांय, वित्त द्यो थिरडाण ना; આત્માર્થે વાણી-કાયાથી, વર્તો તન્મયતા વિના.’ સમાધિશતક अर्थ :- मनमें जब कोई पदार्थ का आकार उपस्थित हो तो उसको उसी समय छोड़ देना चाहिए। आत्मकल्याण या मोक्षमार्ग के विरुद्ध कैसा भी विचार मनमें उपस्थित हो तो उसको एक क्षण भी ठहरने नहि देना चाहिए। यही मन के निग्रह करनेका उपाय है। इसको ही मनोरोध कहते है । (आत्मस्याशनी विरुद्ध के विचार अगे मेने क्षशवार पर टङवा न हेवो) यह मनोरोध भी जिनशासन के सिवाय अन्यत्र नहि मिल सकता । ३. श्रेयोराग :- यहां पर श्रेयस शब्दसे चारित्र और राग शब्द से उसमें लीन होने का कारण अनुरागरूप श्रद्धान समजना चाहिए । अर्थात् मोक्ष के साक्षात् कारण चारित्रमें लीन कर देनेवाला अनुरागरूप श्रद्धान भी अनेकान्त मत में ही प्राप्त हो सकता है, दूसरे मतो में नहीं। (४थी अप्रशस्तराग तभय छे अने આત્માના શ્રેયમાં અનુરાગ થાય છે.) ४. आत्मशुद्धि:- जिस विषय का "मै” यह हूं इस तरह से अनुपचरित वास्तविक भान होता है उसको आत्मा कहते है। इस आत्मामें परपदार्थो के संयोग से रागादिरूप अशुद्धि हुआ करती है । (छोरंगी भन धतुं भय छे.) उस अशुद्धि का दूर होना ही आत्मशुद्धि कहा जाता है। यह भी जिनमत में ही मिल सकता है। वास्तविक वीतरागता और आत्मशुद्धि अन्य मत के अनुसार नहीं बन सकती । ५. मैत्रीद्योत :- किसी भी जीव को कभी भी किसी भी तरह से दुःख की उत्पत्ति न हो ऐसी अभिलाषा को मैत्री कहते है। इसका माहात्म्य विद्वानों के हृदय में उत्पन्न करना मैत्रीद्योत समजना चाहिए, अर्थात् वस्तुतः मैत्री भावना का
SR No.009138
Book TitlePushpmala
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorParas Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages105
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Rajchandra
File Size36 MB
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