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श्रीरुद्रपल्लीयवरेण्यगच्छे, देवप्रभाचार्यपदाब्जहंसः; वादीन्द्रचूडामणिरेष जैनो, जीयाद् गुरुः श्रीकमलप्रभाख्यः
२५ जयतिहुअण स्तोत्र जयतिहुअण-वरकप्परुक्ख!, जय जिण! धनंतरि!, जयतिहुअण-कल्लाणकोस! दुरिअक्करिकेसरि!; तिहुअणजण-अविलंघिआण! भुवणत्तय-सामिय!, कुणसु सुहाइं जिणेस! पास! थंभणयपुरट्ठिअ! तह समरंत लहंति झत्ति वरपुत्तकलत्तइ, धण्णसुवण्णहिरणपुण्ण जण भुंजइ रज्जइ; पिक्खइ मुक्ख असंखसुक्खं तुह पास! पसाइण!. इअ तिहुअण-वरकप्परुक्ख! सुक्खइ कुण महजिण! २ जरजज्जर परिजुण्ण-कण्ण नठुट्ठ सुकु-ट्ठिण. चक्खु-क्खीणखएणखुण्ण नर सल्लिय सूलिण; तुह जिण! सरणरसायणेण लहुर्षति पुणण्णव, जय धन्नंतरि! पास! महवि तुह रोगहरो भव विज्जा जोइस मंत तंत सिद्धिउ अपयत्तिण,
६.f.
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