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________________ गुरुदेव कहते हैं... मन जब तक इटअनिष्ट, राग-द्वेष और हर्ष - शोक में जकड़ा हुआ रहता है, इन्हीं में लगा हुआ रहता है, तब तक आत्मा को ज्ञानदृष्टि, तत्वदृष्टि तथा शुभध्यान की प्राप्ति नहीं हो सकती। वास्तव में शुभध्यान का स्वामी बनना हो तो इष्ट-अनिष्ट जनित हर्षशोक से बाहर निकल जाओ । G सूरत - ॐकारसूरि आराधना भवन का स्थान ! रात के लगभग दो बजे का समय, और गुरुदेव ! आपने मेरे पास एक मुनिवर को भेजा । मैं गहरी नींद में सोया था। मुनिवर ने मुझे उठाकर बस यही कहा "गुरुदेव बुला रहे हैं।" मैं स्तब्ध रह गया। मन में चिन्ता की एक लहर - सी दौड़ गई। "स्वास्थ्य में कोई गड़बड़ तो नहीं है ? समुदाय का कोई गंभीर प्रश्न तो खड़ा नहीं हुआ है? मुझे कुछ कहना चाहते होंगे ?" ऐसी अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाएँ करते-करते मैं नीचे आया। आपके कमरे में प्रवेश किया। आपके पास बैठा, और गुरुदेव, आपने बात शुरु की "रत्नसुंदर ! आवश्यक क्रिया के सूत्र कितने गंभीर रहस्यों से भरे पड़े हैं! सूत्र का उच्चारण करने के साथ मन यदि उसके अर्थ चिंतन में डूब जाए तो आत्मा अनंत अनंत अशुभकर्मों की होली जलाने में सफल हो सकती है ! प्रश्न मेरे मन में यह उठता है कि साधु आवश्यक क्रियाएँ इस तरह करते होंगे या फिर बेमन से करते होंगे ? तुम प्रतिदिन साधुसाध्वियों को वाचना देते हो ना ? उस वाचना में इस विषय पर थोड़ा जोर देते जाओ । यही बताने के लिए तुम्हें अभी जगाया है !" गुरुदेव ! रात के दो बजे हमारे लिए ऐसी चिन्ता से आप व्यथित ? सच कहूँ ? मुझे हमेशा यह महसूस होता है कि हम साधु भले ही पाँचवे आरे के हैं, पर हमें आप तो चौथे आरे के ही मिल गये हैं! ८७
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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