________________
શ
गुरुदेव कहते हैं....
ध्यान जैसा हो, मनुष्य उसके अनुसार सुखी अथवा दुःखी होता है, खुशी या ग़म महसूस करता है। अतः सुखी होने का राज यही है कि ध्यान मलिन नहीं, निर्मल हो । गौण वस्तु के प्रति नहीं, मुख्य वस्तु के प्रति केन्द्रित हो, जिससे खेद - उद्विग्नता लेश मात्र भी छू न सके।
ऐसे निर्मल शुभ ध्यान से परलोक के लिए भी शुभ कर्म का ही उपार्जन होता है। अत: वहाँ भी सुख-सुविधा प्राप्त होती है। इस प्रकार यहाँ के सुखदुःख और परलोक की अच्छी-बुरी स्थिति यहाँ के अच्छे-बुरे ध्यान पर निर्मित होती है। अतः ध्यान जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करता है।
स्थान- जामनगर प्लॉट उपाश्रय आराधना चल रही थी उपधान तप की । वातावरण में कड़ाके की ठण्ड थी। गुरुदेव, आपका भी गला शीत से •खराब था । मेरा कंठ भी शीत से पीड़ित था। आपने मुझे प्रवचन देने की आज्ञा सुबह ही दे दी थी।
बजने वाले थे । श्रावक प्रवचन के लिए विनती करने आये। गुरुदेव, आपकी अनुमति लेकर में प्रवचन करने गया। प्रवचन पाट (पीठिका) पर बैठा । अभी तो मैंने मंगलाचरण प्रारंभ ही किया था कि एक मुनिवर मेरे पास आकर बोले
"गुरुदेव बुला रहे हैं।"
मैं स्तब्ध रह गया। अभी तो मैं गुरुदेव की अनुमति लेकर आया हूँ और अचानक ऐसा क्या कारण उपस्थित हुआ होगा कि गुरुदेव मुझे बुला रहे हैं ? कुछ भयमिश्रित मनोभावों के साथ मैं पाट से उतरा। गुरुदेव, जिस कमरे में आप बिराजमान थे उसमें मैं दाखिल हुआ। कुछ सोचूँ उसके पहले आपने मुझे कहा
"रत्नसुंदर, गला ठीक नहीं है ना ? देखो, अभी अभी गर्म चाय आयी है । थोड़ी-सी ग्रहण कर लो, फिर प्रवचन में जाओ । गला अच्छा चलेगा तो प्रवचन बढ़िया होगा। "
गुरुदेव !
आपकी यह करुणा, आपका यह प्रेम, आपका यह वात्सल्य-ये
ही तो मेरे संयमजीवन को रसपूर्ण बनाने वाले रसायन थे ना ! जीवन आपका तपोमय और मुझ जैसे अझ के प्रति आपका यह असीम प्रेम ?
५१