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श्री पुण्डरीक-गिरिराज-विराजमानो, मानोन्मुखानि वितनोतु सतां सुखानि.
श्री ऋषभदेव स्तवन ऋषभजिनेश्वर! वंदना, होशो वारंवार; पुरुषोत्तम भगवान निराकार संत छो, गुणपर्यायआधार. उत्पत्ति-व्यय ध्रुवता, एक समयमांही जोय; पर्यायार्थिकनयथी व्यय-उत्पत्ति छे, द्रव्यथकी ध्रुव होय.ऋ० १ सत् करतां सार्मथ्यना, होय पर्याय अनन्त; अगुरूलघुनी शक्ति ते तेहमां जाणीए, अनन्त शक्ति स्वतंत्र. २ परमभाव ग्राहक प्रभु, तेम सामान्य विशेष; ज्ञेय अनन्तनुं तोल करे प्रभु! ताहरो, क्षायिक एक प्रदेश. ३ स्थिरता क्षायिकभावथी, मुखथी कही नहि जाय; अनन्तगुण निज कार्य करे लही शक्तिने, उत्पत्ति-व्यय पाय.४ गुण अनन्तनी ध्रुवता, द्रव्यपणे छे अनादि; गुणनी शुद्धि अपेक्षी पर्याये करी,भंगनी स्थिति छ सादी.. ५ सादि अनंति मुक्तिमां, सुख विलसो छो अनंत; सुख ज्ञेयादिक ज्ञानमां ज्ञाता जगगुरु, ज्ञान अनंत वहंत. ६ रागद्वेष-युगल हणी, थईया जग महादेव; बुद्धिसागर अवसर पामी भक्तिथी, पामे अमृतमेव...... ऋ० ७
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