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.... जगतमां० २
ज्ञेय हेय आदेय जणावता, सकल द्रव्य छेरे ज्ञेय; उपादेय चेतननो धर्म छे, पुद्गलआदिरे हेय. भावकर्म ते रागद्वेष छे, काल अनादिथी जाण; द्रव्यकर्मनुं कारण तेह छे, नोकर्म निमित्त आण.. जगतमां० ३ अशुद्धपरिणतियोगे बंध छे, शुद्धपरिणतिथी छे मुक्ति; अन्तरचेतनसन्मुख योगथी, शुद्ध उपयोगनी युक्ति. जगतमां० ४ कर्ता-हर्ता चेतन कर्मनो, बाहिर - अन्तर योग; आत्मस्वभावे रमणता आदरे, प्रगटे शिवसुखभोग. जगतमां० ५ सुख अनन्तनी लीला ध्यानमां, चेतन अनुभव पाय; ध्रुवतायोगतणी स्थिरता होवे, वीर्य अनन्त प्रगटाय. जगतमां० ६ सविकल्पसमाधि शुभउपयोगमां, ध्याता ध्येयनो भेद; शुद्धउपयोगे शुद्धसमाधिमां, टळतो विकल्पनो खेद. जगतमां० ७ अन्तरमां उतरीने पारखो, निर्मल सुखनोरे नाथ; बुद्धिसागर समता एकता, लीनता योगे सनाथ. .जगतमां० ८ श्री धर्मनाथ स्तवन
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धर्म जिनेश्वर! गाउं रंगशुं, भंग म पडशो हो प्रीत जिनेश्वर ! बीजो मनमंदिर आणुं नहि, ए अम कुलवट रीत जिनेश्वर ! ......
धर्मο
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