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केवलज्ञाननी ज्योतिमां ज्ञेय अभिन्न छ, परद्रव्यादिक ज्ञेयथकी वळी भिन्न छे; ज्ञेयाकारे ज्ञान परिणमे जाणजो, भिन्नाभिन्नस्वरूप अनेकांत आणजो.... ज्ञेयापेक्षे ज्ञान अनन्तुं जिन कहे, ज्ञेयनी पासे ज्ञान गयावण सहु लहे; दर्पण क्यांई न जाय दर्पणमां समाय छे, ज्ञेयाकारी भावो ए दृष्टांत न्याय छे. दूरवर्ती जे ज्ञेय ज्ञानमांही भासतो, ज्ञान अचिन्त्यस्वभाव हृदयमा आवतो; ज्ञेयविना सहु ज्ञाननी शून्यता जाणीए, षड् द्रव्यो पर्याय अनन्त मन आणीए. अस्तिविना न निषेध घटे कोई द्रव्यनो, द्वि वण नहि अद्वैत निषेध केम द्रव्यनो, द्वैतनुं ज्ञान थयावण अद्वैत शुं कहो, भासे ज्ञानमां द्वैत सत्यभाव सद्हो. द्रव्य अने पर्यायथी ज्ञेय अनन्तता, वस्तुधर्म स्याद्वाद त्यां एकानेकता;
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