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५२. श्रुतज्ञान
स्फटिक पत्थर पर अगर धूल जम गई हो तो उसकी पारदर्शिता को जाना नहीं जा सकता । धूल साफ होने के बाद हमारे लिए वह अमूल्य हो जाता है । हमारी आत्मा भी आठ कर्मों के आवरण से आवृत्त है इसीलिए यह संसार में भटक रही है ।
ज्ञान आत्मा का गुण है । जैसे-जैसे ज्ञान प्रकट होता जाता है, आत्मा शुद्ध बनती जाती है । ज्ञानपूर्वक आत्मा का विचार करना चाहिए । ज्ञान स्व और पर दोनों को ही प्रकाशित करता है ।
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श्रुतज्ञान बोलता हुआ होता है और केवलज्ञान मूक होता है । केवल ज्ञान को बतानेवाला भी श्रुतज्ञान होता है । संसार को पार करानेवाला श्रुतज्ञान होता है । आत्मा जब मुक्त हो जाती है, तभी वह वास्तव में सुखी होती है । त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में क्रोध के कारण बाँधे कर्म हल्के होते ही महावीर परमात्मा का वह जीव भगवान् बन जाते है । वीर प्रभु के कानों में जब कीलें ठोकी जाती हैं, तब प्रभु सोचते हैं कि 'अज्ञानवश किये हुए कर्म को मुझे ज्ञानदशा में चूपचाप भोगने चाहिए । अंधकार में लगाई हुई गाँठ को मुझे प्रकाश में खोलना चाहिए ।
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