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४९. संयम मन को समता और संयम में बाँधे रखना अत्यंत कठिन है, क्योंकि मन तो पानी के समान है, उसे ऊपर चढ़ाने के लिए कठिन साधना करनी पड़ती है । जब हम पूजा सामायिक या स्वाध्याय करते हैं, तब न सोचने योग्य भी सोचने लगते हैं । क्योंकि आर्त-रौद्रध्यान धर्म करते समय ही आते हैं, इसलिए उस समय मन को धर्म और मोक्ष की ओर मोड़ना चाहिए । प्रभुके वचनो में ही रमण करना चाहिए । श्रवण करते समय एकतान बनकर गुरुमुख से निसृत प्रभु की वाणी की ओर ही ध्यान देना चाहिए । मन के ऊपर विवेक की लगाम लगा कर श्रवण क्रिया में एकाग्र बनना चाहिए ।
अगर इन्द्रियों के ऊपर संयम की लगाम न हो तो वे आत्मा को दुर्गति में फेंक देती
जैसे-जैसे बाहर का सुख बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे अंदर का सुख घटता जाता है ।
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