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१. आत्मसंशोधन
आत्मसंशोधन से आत्मा का विकास होता है । स्वयं बुरे, होते हुए भी अपने आपको अच्छे माननेवाले लोग तो इस जगत् में अनेक हैं, परंतु ऐसे महापुरुष विरले ही हैं जो स्वयं अच्छे होते हुए भी अपने आपको बुरा या अयोग्य समझें ।
जीवन में आत्मसंशोधन आवश्यक है । मनुष्य होते हुए भी हमारी वृत्तियाँ श्वान जैसी हैं । श्वान को जो रोटी देता है, उसके तो वह पैर चाटता है परन्तु जो न दे सके, उसके सामने भौंकता है । इसलिए दूसरों के दुर्गुण देखने के बजाय उनके सद्गुण ही देखना चाहिए । साथ ही हमें चाहिए कि हम सर्वप्रथम हमारे चंचल स्वभाव को स्थिर करके तथा अपने दुर्गुणों को खोजकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें ।
मनुष्य को घड़ी के काँटे की भाति स्थिरता से, धीरे - धीरे काम करना चाहिए । परन्तु जो करने का काम है, उसे हम भूल जाते हैं, अतः नहीं करने योग्य गलत विचार मन के सामने आकर खड़े हो जाते हैं । इसलिए सर्वप्रथम मन को तालीम देने की, उसे स्थिर करने की आवश्यकता है ।
बुढ़ापे में होनेवाला आत्मसंशोधन पके
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