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जीव को सद्गुणों को देखकर आनंद होता है।
और वह उन्हें प्राप्त करने के लिए उधर दौड़ पड़ता है।
समकिती मनुष्य अपने अवगुणों को सबके सामने खोलकर रखता है और सद्गुणों को छुपा देता है । इसके विपरीत दूसरों के अवगुणों को छिपाकर उनके सद्गुणों को प्रकाश में लाता है, स्वंय सद्गुणों को जीवन में उतारता है और दुर्गुणों को दूर फेंक देता है । सम्यक्त्वी आत्मा सुख नहीं, दुःख ही माँगती है ।
गाड़ी जब ऊपर चढ़ती है, तब दुर्घटना नहीं होती है । उतरते समय ही वह दुर्घटना करती है । दुःख में पतन का भय नहीं, सुख में ही पतन का भय रहता है ।
माँग कर पैसे लेना वह पैसा ही है, परन्तु हृदय के भाव से जो पैसा दिया जाता है वह दान' बन जाता है । दान एक सुवास है और सुवास हृदय में से आती है । साधु का जीवन सुवास से भरा होता है । वह परोपकार करता है । पैसे तो हमें छोड़कर जानेवाले हैं । पैसे लेने के लिए नहीं, देने के लिए होते हैं ।
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