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मोक्ष का सख सर्वोतम है- शाश्वत है । मनुष्य-भवमें ही मोक्ष की साधना की जा सकती है; अत: स्वर्ग के देव भी मनुष्यभव पाने के लिए लालायित रहते हैं । स्वर्ग के देवों का सुख भी अस्थायी होता है; क्योंकि पुण्य क क्षीण होने पर उन्हें मनुष्य लोक में जन्म लेना पड़ता है :
__ "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति ।।"
पणिया श्रावक को स्वर्ग का सुख तो सहज ही मिल सकता था; परन्तु वह शाश्वत सख चाहता था, इसलिए वह प्रभु के चरणों में समर्पित हो गया :
लभेद् यदयुत धनं तदधनं धनं यद्यपि लभेत नियुत धन निधनमेव तज्जायते । तथा धनपरार्धक तदपि भावहीनात्मकम्
यदक्षर पदद्वयान्तरगत धनं तद्धनम् ।। [अयत ('अ' से युक्त) धन तो 'अधन' है और नियुत ('नि' से युक्त) धन ‘निधन' (मृत्यु) हे । यदि परार्ध (अगला आधा अंश) धन (न) प्राप्त किया जाय तो वह अभावात्मक है; इसलिए अक्षर (ईश्वर) के दोनों पदों (चरणों) के बीच मिलने वाला (वर्णमाला में 'पद' अर्थात् द और प के बीच 'धन' ही रहता है) मोक्ष रूपी धन ही सच्चा धन हे ।]
यह मोक्ष धन तो भक्त अपने लिए चाहते हैं और जो क्षणिक धन उनक पास होता है, उसे परोपकार में लगा देते हैं । परिग्रह की ममता नष्ट करने के लिए वे दान करते हैं । बिन्दु- बिन्दु से सिन्धु बन जाता है । सिन्धु अपना जल उन बादलों को देता है, जो प्रसन्नतापूर्वक उसे धरती पर बरसा देते हैं । धरती भी अन्न स्वयं न खाकर किसानों को दे देती है । किसान अपने अनाज के ढेरों से जनता की भूख मिटाते हैं । परोपकार की यह परम्परा पवित्र हे ।
परोपकारी अपनी शक्ति का उपयोग सर्जन में करता है, संहार में नहीं। भोग तो सभी प्राणी कर रहे हैं । उस में साहस की आवश्यकता नहीं होती । साहस की आवश्यकता होती है- दान में, त्याग में, परोपकार में।
परोपकार न करनेवाला धनवान भी निर्धन है- विद्वान् भी मूर्ख हैजीवित भी मृतक है ! सभी प्राणियों को चाहिये कि तन-मन-धन-से सदा यथाशक्ति परोपकार करते रहें ।
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