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आखिर सब और से निराश होकर उन्होंने अब यह मान लिया कि शायद जंगल के हिंसक पशु उसे खा गये होंगे । अपनी प्रियतमा की दुर्दशा और मृत्यु के लिए वे स्वयं को दोषी मानकर उसका प्रायश्चित करना चाहते थे । इसके लिए वे अग्निचित्ता सुलगाकर उसमें कूद कर अपने प्राणों की आहुति देना ही चाहते हैं कि उसी समय प्रतिसूर्य वहाँ आकर उनका हाथ पकड़ लेते हैं और सारे कुशल-समाचार उन्हें सुनाते हैं । फिर अपने साथ विमान में बैठाकर पवनंजय को अंजना और हनुमान से मिलाते हैं । कुछ दिनों बाद तीनों को विमान में ही बिठा कर उनकी राजधानी में छोड़ आते हैं । सर्वत्र हर्षोल्लास छा जाता है । इस कथा से यह शिक्षा लेनी चाहिये कि संकटों में हम व्याकुल न हों । संकट के कारण अपने पूर्वजन्म के कर्मो को सोचे ।
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