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११. गुरुमहिमा
सद्गुरू सेवियो!
नमस्कार महामन्त्र में परमात्मा (सिद्धदेव) से भी पहले गुरु (अरिहन्त) को नमन किया गया है। कबीर साहब ने एक दोहे में स्पष्ट किया है :
गुरू गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय।। ईश्वर और गुरू दोनों यदि सामने आकर एक साथ खड़े हो जाय तो हमारी समस्या बहुत जटिल हो जायगी। गुरू उपकारी हैं और ईश्वर बड़े हैं-- गुरु के लिए भी आराध्य हैं। ऐसी स्थिति में हम पहले किसे वन्दन करे ?
कबीर साहब कहते हैं- गुरूदेव को धन्यवाद, जिन्होंने ईश्वर की पहिचान कराई। इस प्रकार उन्होंने गुरूदेव की महिमा स्वीकार की। गुरु का महत्त्व जो नहीं मानते, वे कबीर की दृष्टि में अन्धे हैं- भले ही उनकी दोनों आँखे मौजूद हों।
असली आँख, जो उनके हृदय में है, वह बन्द हो जाती है। राजस्थान में ऐसे व्यक्ति के लिए “हिया फूटा' (जिसकी हृदय की आँख फूट चुकी है, वह) शब्द प्रचलित है कबीर साहब फरमाते है :
कबिरा वे नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरू ठौर हैं. गुरु रूठै नहिं और। यदि ईश्वर नाराज हो जाय तो हम गुरू के चरण पकड़.लेंगे; परन्तु यदि गुरु नाराज हो जाय तो कहाँ जायँगे? किसीकी शरण ग्रहण करेंगे ? कौन बचायगा हमें ? गुरु महिमा इस दोहे में वैदिकधर्म के अनुसार प्रमाणित की गई है; क्योंकि कबीर साहब पर वौदिकधर्म के संस्कार थे।
जैनधर्म के अनुसार न तो गुरु ही किसी पर नाराज होते हैं और न देव ही। दोनों रागद्वेष से रहित होते हैं; इस लिए आपको इनकी नाराजी की कल्पना करके कबीर साहब की तरह काँपने की कोई जरूरत नहीं; जरूरत है केवल गुरुमहिमा स्वीकारने की।
गुरु से ज्ञान का झरना प्रवाहित होता है- प्रश्नों का उत्तर मिलता है-जिज्ञासाओं का निराकरण होता है- समस्याओं का समाधान होता है- उलझनें सुलझती है और मिलता रहता है-मोक्ष के लिए मार्गदर्शन । गुरु की महिमा स्वीकारने के लिए इतना भी पर्याप्त है।
यह तन विष की बेलड़ी गुरु अमृत की खान। सीस दियाँ जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान॥
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